बांग्लादेश से गजवा- ए - हिंद का आगाज़- हर हिंदू को बनना होगा वीर दुर्गादास राठौर
राजपूतों की शक्ति को नष्ट किए बिना औरंगजेब की धार्मिक नीति भारत में सफल नहीं हो सकती थी और यदि हो जाती तो स्थायी नहीं हो सकती थी।
औरंगजेब के आदेश से मारवाड़ का एक-एक मंदिर तोड़ दिया गया, उनके स्थान पर मस्जिदें, खड़ी कर दी गईं, घर-घर में लड़ाई की गई सभी तरफ बर्बादी फैला दी गई परंतु महान् दुर्गादास ने स्वयं और अजीत सिंह को मुगलों के अधिकारी में न आने दिया।
जबलपुर/वर्तमान परिस्थितियों में बांग्लादेश में तख्तापलट की आड़ में जिस तरह से हिन्दुओं का सर्वनाश किया जा रहा है वह और कुछ नहीं वरन् गजवा - ए - हिंद का आरंभ है। गजवा-ए-हिंद का तात्पर्य भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले काफिरों को जीतकर उन्हें मुस्लिम बनाने से है। दुनिया के इस हिस्से में रहने वाले लोगों के साथ युद्ध से है। आसान भाषा में समझें तो गजवा-ए-हिंद का मतलब जंग में भारत को जीतकर इसका इस्लामीकरण करने से है।
ऐंसा नहीं है कि पहले ऐसा नहीं हुआ, यदि इतिहास के पन्नों को पलटेंगे तो पता चलेगा कि सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी के प्रथम दशक तक धूर्त मुगल शासक औरंगजेब ने भी कमोबेश गजवा - ए - हिंद चलाया था तब हिन्दुओं ने एकजुट होकर औरंगजेब के भारत के इस्लामीकरण के सपने ध्वस्त कर दिया था।
उल्लेखनीय है कि छत्रपति शिवाजी महाराज, संभाजी, वीरांगना ताराबाई, गुरु गोविंद सिंह, राजाराम जाट, छत्रसाल बुंदेला लचित बरफुकन आदि ने औरंगजेब का जीना मुश्किल कर दिया था इन्हीं महावीरों में से एक थे, वीर दुर्गादास राठौर। महा महारथी वीर दुर्गादास राठौर ने 30 वर्ष तक धूर्त, अत्याचारी, अनाचारी, कपटी और धर्मांध मुगल शासक औरंगजेब और मुगलों की ठुकाई कर हिंदुत्व की रक्षा की,भगवा पताका फहराई तथा अफगानिस्तान के जमरुद में दिसंबर 1678 में महारथी जसवंत सिंह को दिए गए वचन के परिप्रेक्ष्य में अजीत सिंह को मुगलों से मुक्त कराकर मारवाड़ का राज सिंहासन सौंपा।
महारथी दुर्गादास क्षत्रिय - मराठा मैत्री के सूत्रधार और भारत के सभी राजपूतों की एकता के प्रतीक थे। वर्तमान परिस्थितियों में गजवा - ए - हिंद के मंसूबों को ध्वस्त करने पुनः हिन्दुओं को एक होकर गौरवशाली अतीत के महानायकों को आत्मसात करना होगा।
महान दुर्गादास राठौर का इतिहास मारवाड़ से शुरु होता है, जिसे अब जोधपुर के नाम से जाना जाता है। यहां पर राठौरों का राज्य था, जो धूर्त अकबर की राजपूत की नीति आ गए थे, परंतु महान दुर्गादास राठौर ने इस कलंक को धो दिया। जब औरंगजेब मुगल शासक बना तो वह राजपूतों के स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त करना चाहता था, वह उनके राज्यों को मुगल- राज्य की सीमा में सम्मिलित करना चाहता था। वह उनमें से प्रत्येक को संदेह की दृष्टि से देखा था, वह जिंदा - पीर और इस्लाम का कट्टर समर्थक उन्हें अपनी धार्मिक नीति के व्यावहारिक प्रयोग में सबसे बड़ी बाधा मानता था।
राजपूतों की शक्ति को नष्ट किए बिना औरंगजेब की धार्मिक नीति भारत में सफल नहीं हो सकती थी और यदि हो जाती तो स्थायी नहीं हो सकती थी। उधर राजपूतों से भी औरंगजेब का यह लक्ष्य छुप ना सका कि औरंगजेब उनके सम्मान, शक्ति और राज्यों को समाप्त करने पर तुला हुआ था। जैसे ही राजपूतों को यह स्पष्ट हुआ उन्होंने अपनी रक्षा के लिए हथियार उठा लिए जिसका परिणाम था राजपूतों का मुगलों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम। उस समय राणा राज सिंह मेवाड़ का, राजा जसवंत सिंह मारवाड़ का और राजा जयसिंह आमेर के शासक थे। राजा जयसिंह और जसवंत सिंह दोनों उत्तराधिकारी के युद्ध में औरंगजेब के विरुद्ध थे परंतु बाद में औरंगजेब की विजय के बाद उसके साथ ही आ गए थे। इसलिए औरंगजेब दोनों को दुश्मन समझता था।
औरंगजेब विश्व के सबसे पापी शासकों में से एक था, उसने सामूगढ़ के युद्ध में अपने पिता शाहजहां को बंदी बना लिया था, धरमत के युद्ध में साथ देने वाले अपने भाई मुराद का भी अंत कर दिया। सत्ता के रक्तपिपासु औरंगजेब ने खजुआ के युद्ध में अपने भाई शुजा का अंत कर दिया और देवराई के युद्ध अपने बड़े भाई दारा शिकोह को दर्दनाक मौत दी। इस तरह औरंगजेब तथाकथित मुगल बादशाह बना।
देवराई के युद्ध बाद यह कहा जाता है कि जब तक राजा जसवंत सिंह जिंदा रहा, तब तक औरंगजेब ने संतोष की सांस नहीं ली और उसे मुगलिया सल्तनत की मध्य एशिया से सुरक्षा हेतु अफगानिस्तान भेज दिया। अफगानिस्तान में जसवंत सिंह और दुर्गादास राठौर ने उन उजबेगों को खदेड़ कर मारा, जिनसे पिटकर भगोड़ा बाबर भारत आया था। समय बीतता गया और दिसंबर 1678 ईस्वी में अफगानिस्तान के जमरूद नामक स्थान पर महारथी जसवंत सिंह ने अंतिम सांस ली।
जसवंत सिंह के बड़े पुत्र और उत्तराधिकारी पृथ्वी सिंह को औरंगजेब ने चालाकी से जहरीली पोशाक पहनकर पहले ही मरवा दिया था और उसके दो पुत्र अफ़गानों से युद्ध करते समय मारे गए थे। ऐसी स्थिति में राज्य का कोई भी उत्तराधिकारी जीवित न था। जसवंत सिंह की मृत्यु के तीन सप्ताह पश्चात धोखेबाज औरंगजेब ने मारवाड़ को मुगल राज्य में सम्मिलित करने के लिए सेना भेज दी। मारवाड़ की राठौर सेना अपने राजा के साथ अफगानिस्तान में थी, इस कारण मारवाड़ में मुगलों का कोई विशेष विरोध नहीं हुआ। मुगलों ने मारवाड़ पर अधिकार कर लिया। स्वयं औरंगजेब इस कार्य के लिए अजमेर गया, मारवाड़ के मंदिरों को गिरा दिया गया और वापस दिल्ली आने पर औरंगजेब ने 12 अप्रैल 1679 ई. को हिंदुओं पर जजिया लगा दिया।
मारवाड़ को और अधिक अपमानित करने के उद्देश्य से नागर के सरदार को 56 लाख रुपए में जसवंत सिंह का राज सिंहासन भेज दिया गया और उसने मुगल सेना की सुरक्षा में जाकर सिंहासन को अपने अधिकार में ले लिया। ऐंसा प्रतीत होता था कि मारवाड़ का स्वतंत्र अस्तित्व सदा के लिए समाप्त हो जाएगा। परंतु मारवाड़ के भाग्य सूर्यास्त अभी नहीं हुआ था क्योंकि महारथी दुर्गादास को आना था।
अफगानिस्तान से वापस आते हुए लाहौर में राजा जसवंत सिंह की दो रानियां ने दो पुत्रों को जन्म दिया उन बच्चों में से एक की मृत्यु कुछ सप्ताह पश्चात् हो गई परंतु दूसरा बेटा अजीत सिंह जीवित रहा। जसवंत सिंह का सेनापति दुर्गादास, अपनी राजा की रानियों और अजीत सिंह को लेकर दिल्ली पहुंचा और औरंगजेब से मांग की, कि मारवाड़ का राज्य अजीत सिंह को दे दिया जाए। औरंगजेब ने दुर्गादास से अजीत सिंह को उसे सौंप देने की मांग की और मारवाड़ को वापस देने की शर्त रखी कि अजीतसिंह इस्लाम धर्म को स्वीकार कर ले। उसी समय से राठौरों और मुगलों का संघर्ष आरंभ हुआ, जो बीच-बीच में कुछ समय तक स्थगित रहने के बाद भी औरंगजेब की मृत्यु तक चलता रहा।
दुर्गादास ने रानियों को मर्दाने वस्त्र पहनाए, दासियों को रानियों के वस्त्र पहनाए, अजीत सिंह के स्थान पर एक दासी पुत्र को छोड़ा और रानियों तथा अजीत सिंह को लेकर चुपके से दिल्ली से मारवाड़ की ओर निकल गया। औरंगजेब को इसकी सूचना मिली तब दुर्गा दास 9 मील तक सफर तय कर चुका था। औरंगजेब ने उसका पीछा करने के लिए मुगल से ना भेजी, परंतु मार्ग में राठौरों की छोटी-छोटी टुकड़ियां मुगलों के मार्ग में बाधा डालती रहीं जिससे दुर्गादास को समय मिल गया और अंत में वह मारवाड़ पहुंच गया।
मारवाड़ के राजपूत अपनी रानी और अल्पायु शासक की सुरक्षा के लिए शस्त्र लेकर खड़े हो गए और मारवाड़ का स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हो गया। औरंगजेब ने एक ग्वाले के पुत्र को अजीत सिंह घोषित किया उसे इस्लाम में परिवर्तित करके उसका नाम मोहम्मद राज रखा और असली अजीत सिंह को नकली बताया परंतु राठौरों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा उन्होंने दुर्गादास के नेतृत्व में मुगलों से युद्ध जारी रखा। दुर्गादास राठौरों के युद्ध का जीवन और आत्मा सिद्ध हुआ। कुपित होकर औरंगजेब स्वयं अजमेर पहुंचा उसने अपने पुत्र अकबर और अजमेर के फौजदार तहव्वरखाँ के नेतृत्व में एक बड़ी सेना को मारवाड़ पर दोबारा आक्रमण करने के लिए भेजा।
औरंगजेब के आदेश से मारवाड़ का एक-एक मंदिर तोड़ दिया गया, उनके स्थान पर मस्जिदें, खड़ी कर दी गईं, घर-घर में लड़ाई की गई सभी तरफ बर्बादी फैला दी गई परंतु महान् दुर्गादास ने स्वयं और अजीत सिंह को मुगलों के अधिकारी में न आने दिया। राठौरों ने अपने नगरों और गांव को छोड़कर जंगलों और पहाड़ों में छुपकर युद्ध जारी रखा।
मेवाड़ में जजिया लगा दिया गया तब महारथी दुर्गादास ने रिश्तों का हवाला देते हुए मेवाड़ के राणा राज सिंह को भी औरंगजेब के विरुद्ध खड़ा कर दिया और इस प्रकार राठौरों और सिसोदियों ने मिलकर संघर्ष आरंभ किया। महान् दुर्गादास औरंगजेब के विरुध्द अद्भुत कूटनीतिक चाल खेली जिसमें औरंगजेब के तोते उड़ गए। महान् कूटनीतिज्ञ दुर्गादास राठौर ने औरंगजेब के पुत्र शहजादा अकबर को औरंगजेब के विरुद्ध ही खड़ा कर दिया और मुगल बादशाह घोषित करके औरंगजेब को एक विकट समस्या में फंसा दिया। इस तरह मुगल खेमे में अंतर्कलह कर दी। इसलिए औरंगज़ेब ने दांत पीसते हुए कहा था कि "मैं शिवाजी को तो किसी तरह जाल में फंसा सकता हूँ परंतु यह कुत्ता मेरी जिंदगी के लिए जहर से भी ज्यादा खतरनाक हो गया है।"
महान दुर्गादास ने हिन्दुओं की एकत्व के लिए दक्षिण कूच किया जहाँ छत्रपति शंभाजी से मुलाकात कर मुगलों के विरुध्द रणनीति तैयार की। उसके बाद दुर्गादास गोंडवाना पहुंचे और पुनः युद्ध की तैयारियां प्रारंभ की। इसी बीच अकबर की असफल तो हुआ परंतु मेवाड़ बच गया क्योंकि औरंगजेब को उसके कारण अपनी सेनाएं हटानी पड़ीं। इसके मेवाड़ ने संधि कर ली परंतु मारवाड़ ने साहस नहीं छोड़ा और युद्ध को जारी रखा।
इस स्वतंत्रता के युद्ध को सुविधा की दृष्टि से तीन भागों में बांटा जा सकता है, प्रथम चरण 1681 से 1687 तक का समय जिस समय दुर्गा दास दक्षिण में थे और राठौरों ने दुर्गादास की रणनीति पर युद्ध किया। द्वितीय चरण, 1687 से 1701 तक का समय जिसमें दुर्गादास दक्षिण से वापस आ चुके थे और अजीत सिंह जवान हो गए थे। दोनों ने मिलकर राठौरों का नेतृत्व किया और मुगलों के बराबर खड़े हो गए। तीसरा चरण 1701 से 1707 तक का समय जिसमें दुर्गादास राठौर और अजीत सिंह के नेतृत्व में मारवाड़ को स्वतंत्र करने में सफलता प्राप्त की।
सन् 1707 में जोधपुर में अजीत सिंह का राज्याभिषेक हुआ। महान् दुर्गादास राठौर ने जसवंत सिंह को दिया हुआ वचन पूरा किया। जैंसे कि हमारी परंपरा रही है कि "रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई।"
वीर दुर्गादास स्वदेश और स्वधर्म के लिए सर्वस्व अर्पित कर 'जस की तस धर दीन्ही चदरिया' के आलोक में अजीत सिंह से अनबन के बाद जोधपुर से मेवाड़ चले आए और फिर इस वीरात्मा को महाकाल का बुलावा आ गया। 22 नवंबर सन् 1718 को शिप्रा के तट पर महाकाल की नगरी उज्जैन में पूजा के उपरांत देहावसान हुआ। इस तरह एक और देव, महादेव में समाहित हो गए। लाल पत्थर में उनकी छतरी अभी भी चक्रतीर्थ, उज्जैन में है, जो सभी स्वतंत्रता सेनानियों और हिन्दुओं के लिए तीर्थ है। वीर दुर्गादास को मारवाड़ का अण बिंदिया मोती कहा गया है वहीं कर्नल जेम्स टाॅड ने उनको राठोरों का यूलीसेस पुकारा है। डॉ. जदुनाथ सरकार ने वीर दुर्गादास राठौर के बारे में लिखा है कि "भीषण विपत्तियों से संघर्ष करते हुए, चारों तरफ से शत्रुओं से घिरे हुए और अपने देश के निवासियों के द्वारा आत्मविश्वास को खो देने और उनके अनिश्चित होने के उपरांत भी उसने अपने स्वामी के पक्ष को जीवित रखा। मुगलों का स्वर्ण उसे लालायित न सका और मुगल - शस्त्र उसके साहस को न तोड़ सके।" इसलिए तो उनका स्मरण इन पंक्तियों से किया जाता है कि -
"आठ पहर चौसठ घड़ी, घुड़ले ऊपर वास।
सैल अणी स्यूं सैकतो, बाटी दुर्गादास।।
-माई ऐहड़ौ पूत जण, जेहड़ौ दुर्गादास।
मार गण्डासे थामियो, बिन थाम्बा आकास।।
डॉ. आनंद सिंह राणा,
श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत